महफूज़ नहीं है अब बच्चे
कहीं भी महफूज़ नहीं है
घर हो या विद्यालय
सड़क हो या देवालय
पड़ोस हो या अनाथालय
कहीं भी
कभी भी
कोई भी
हैवानियत को सर पर ओढ़ कर
शर्म हया को छोड़ कर
सारी मर्यादा तोड़ कर
किसी भी
मासूम के जीवन से खेल कर
उसके सपनों का ढेर कर
चला जाता है
उसके भविष्य को बिखेर कर
वो बच्चे
जो डर जाते हैं थोड़े से खून से
वो बच्चे
जो लगते हैं दिलों को सुकून से
कैसे कोई
उन मासूमों को दर्द दे सकता है
कैसे कोई
उनसे उनकी ज़िंदगी ले सकता है
करुणा, दया, प्रेम
सब खत्म हो चूका है
अब तो लगता है
इंसान के अंदर इंसान का
अंत हो चूका है
कल फिर किसी मासूम की,
यहाँ लाश दिखाई देगी
कल फिर किसी पिता की आँखे,
यहाँ रोती दिखाई देंगी
कल फिर कोई और माँ,
तड़पती दिखाई देगी
वो माँ…वो पिता कहीं
तुम ना बन जाओ
उठो, जागो और कदम बढ़ाओ
बात बच्चों के भविष्य की है,
कोई और तुम्हे जगाने नहीं आएगा
तुम्हें खुद उठकर चलना होगा,
कोई और तुम्हे चलाने नही आएगा
ऐसे संगीन मामलों में,
चुप्पी नहीं एक शोर होना चाहिए
समाज के वहशी लोगों का,
पुरजोर विरोध होना चाहिए
बचा रहे बचपन
बचे रहे बच्चे
ऐसे समाज के निर्माण में
सबका सहयोग होना चाहिए
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2 Comments
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बहुत ही सही..अपने अपनी कविता के माध्यम से एक गंभीर समाश्या को सामने लाया है|
धन्यवाद