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थके तन – मन के चलते कुछ दिनों से लेखनी नहीं उठा पाया । पिछली कुछ रचनाएँ सीधे ही यहाँ टंकित कर दीं । अभी उन्हें कागज़ पर उतार नहीं पाया हूँ ।
ऐसी ही अवस्था में पिछले तीन दिनों से लुधियाना में था । लगभग दो महीने से टी वी देखना छोड़ ही चुका हूँ । वहाँ समाचारपत्र भी ढंग से नहीं पढ़ पाया । यही जो मेरे – आपके हाथ में है, ‘सचलभाषी’, इसी के माध्यम से पता चला कि नीरज जी नहीं रहे !
पिछले दिनों दिल्ली में एक कवि सम्मेलन का आयोजन निश्चित था, जिसकी अध्यक्षता नीरज जी को करनी थी; मेरे मन में था कि मुझे बुलावा नहीं भी आया तो चला जाऊंगा, नीरज जी की चरणरज लेने । परंतु, किसी कारणवश वो कार्यक्रम स्थगित हो गया । सभी इच्छाओं को फल नहीं लगते ।
आज प्रात: लुधियाना से लौटते हुए डबडबाई आँखों, कांपते हाथों से, हिचकोले खाते हुए जो लिखा उसका शीर्षक दिया है ‘पथ – प्रदीप’ ।
आपका आशीर्वाद चाहता हूँ ।
* पथ – प्रदीप *
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शब्द शाश्वत है
सत्य शब्दों की कलियाँ
नाद फूल है
गान हैं फलियाँ
शब्द – चितेरे कहीं नहीं जाते
अमर हैं
महका करती हैं सदा – सर्वदा
शब्दों की अवलियाँ
सुगंध स्वर की
कला की संपदा
सुलेख लेखनी का
बात कहने की अदा
माँ शारदा लुटाया करती हैं
यह हीरे – मोती
किसी एक को यह सब
मिला करते हैं यदा – कदा
आकाश नीलाभ
बिना रंग का पानी
धूसर धरती
चुनरिया धानी
पूरब पच्छिम उत्तर कभी दक्खिन को
चला करती है पवन
संग उड़ा ले जाती है
सूरत जानी – पहचानी
चक्र सुदर्शन रणछोड़ का
अंजनिसुत की गदा
तुलसी कबीर की सीख
साक्षी नानक की फलदा
तेरे गीतों में वो सब है कि
तृषित मन की प्यास बुझे
मर्यादा पुरुषोत्तम की
सीता – सी प्रियंवदा
लिख तो रहा हूँ
तनिक लेखन सुधार लूं
मसि चुक रही है
दाएं – बाएं से उधार लूं
कहाँ गया जगमगाता – झिलमिलाता
मेरा पथ – प्रदीप
निर्जन नीरव तमस में
किसे नीरज पुकार लूं
अब किसे नीरज पुकार लूं . . . . . !
वेदप्रकाश लाम्बा ९४६६०-१७३१२ — ७०२७२-१७३१२
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