पतझड़ में
पत्ते सारे झड़ गये
मैं फिर भी
बहारों का इंतजार करता
आसमान को चूमता
नदी किनारे
ठंडी ठंडी हवाओं में सुलगता
फूलों को ख्वाबों में ढूंढता
पूरी कायनात को अपनी
बाहों में भरता
छितरा छितरा सही
थोड़ा सा आड़ा तिरछा सही
पर सिर उठाये हौसले का
दम भरता
जमीं पे सीधा खड़ा हूं
एक दरख्त ही तो हूं
आशियाना न बना
सको तो
मेरी टहनी पे पलभर बैठ
सुस्ता लेना
ओ परिन्दे
राहगीर को छांव न दे सका
फल न खिला सका
तो न सही
मेरे तने से लिपटकर
सुकून के कुछ क्षण बिता लेना
ऐ दोस्त
पत्थर की शिला सा नहीं है
मेरा हृदय
एक नदी की बहती धारा सा
गतिमान है
मिल जाऊं जो एक नदी सा
सागर में तो
मेरा अस्तित्व भी बहुत
विशाल है।
मीनल