अपना तो पूरा जहाँ होता
अपने बीच न ये दायरा होता
और जब चाहे चले जाते जहाँ जी करता
काश मैं एक परिंदा होता….!
आँखों से इतना न रोता
कुछ रहता नहीं तो क्या खोता
पल में यहाँ से वहाँ होता
कास मैं एक परिंदा होता ….!
अक्सर आँखों में आंसु जिनके दिखती है मेरी वजह से
कोई रहती है मेरे वगैर तन्हा तन्हा से
तब न ये झूठ झमेला होता
काश में एक परिंदा होता……!
तब न ये बंदिश न पहरा होता
जो दिखता वही घाव गहरा होता
तब सबमें एक भाईचारा होता
काश मैं एक परिंदा होता…..!
हर एक उम्मिद तब जिंदा होता
पूरी दुनिया का मैं वाशिंदा होता
तब शायद कहीं नहीं शर्मिदा होता
काश मैं जो एक परिंदा होता..!!
–संतोष कुमार वर्मा