पत्थर नहीं इंसान हूँ मैं
कैसे कह दिया इंसान हूँ मैं !
पत्थरों के बीच रहा
बन गया ह्रदय पत्थर का
संवेदनायें खो गयी
बूत रह गया बस एक पत्थर का
हत्या, लूट ,डकैती
बलात्कार कैसे छोड़ूँ
अन्याय सीखा है पत्थरों से
फिर पत्थर क्यों न बनूँ
ऊँचे पर्बतों से लुढ़कता
जब मैं तबाही कर देता हूँ
कुचल देता हूँ
अनगिनित पेड़, पशु
इंसानो को जो रहते हैं
पैरों तले
हाँ मैं इंसान भी हूँ
पर मैं इंसान कहाँ हूँ !
मौलिक